उन्नीसवीं शताब्दी के उस दौर में लखनऊ के नवाबों की रसोइयों में पाककला अपने चरम पर पहुँच चुकी थी जिसका विस्तृत वर्णन मौलाना अब्दुल हलीम शरर की किताब ‘गुज़िश्ता लखनऊ’ में पाया जाता है। क़िस्सा है कि लखनऊ के नज़दीक की एक रियासत के ऐसे ही एक शौक़ीन नवाब सैयद मोहम्मद हैदर काज़मी ने अंग्रेज़ लाटसाहब को खाने पर बुलाया।
मेहमान ने दावत का खूब आनंद लिया और सभी व्यंजनों पर आज़माइश कर उनकी तारीफ़ की। बस कबाबों में नुक्स निकाल दिए- मसलन वे ज़्यादा मुलायम नहीं थे और उन्हें चबाने में थोड़ी मशक्कत करनी पड़ रही थी। हल्के-फुल्के में कही गई इस बात को नवाब काज़मी ने दिल पर ले लिया और अगले दिन ही अपने खानसामों से कबाबों की गुणवत्ता सुधारने को कहा। खानसामों ने तमाम तरह के प्रयोग किये। एक प्रयोग के तौर पर उन्होंने मांस को कोमल बनाने के लिए कच्चे मलीहाबादी आमों के गूदे का इस्तेमाल किया। ऐसा करने के बाद जो कबाब बने वे बेमिसाल निकले और उन्हें नवाब काज़मी की रियासत के नाम पर काकोरी कबाब कहा गया।
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